बज़्म

उर्दु ज़बान की चाशनी में घुली महफ़िल-ए-सुख़न

Thursday, June 03, 2004

इब्तदा

फिर से मौसम बहारों का आने को है, फिर से रंग-ए-ज़माना बदल जायेगा
अब के बज़्म-ए-चरागां सजायेंगे हम, ये भी अरमान दिल का निकल जायेगा ।

फीकी फीकी सी कयूँ शाम-ए-महखाना है, लुत्फ़-ए-साक़ी भी कम खाली पैमाना है
अपनी नज़रों से ही कुछ पिला दीजिये, रंग महफिल का खुद ही बदल जायेगा ।

आप कर दें जो मुझ पर निगाह-ए-करम, मेरी उलफ़त का रह जायेगा कुछ भरम
यूं फसाना तो मेरा रहेगा वही , सिर्फ उन्मान उनका बदल जायेगा ।

मेरे मिटने का उनको ज़रा ग़म नहीं, ज़ुल्फ भी उनकी ए दोस्त बरहम नहीं
अपने होने ना होने से होता है क्या, काम दुनिया का यूँ भी तो चल जायेगा |

आपने दिल जो 'ज़ाहिद' का तोडा तो क्या, आपने उसकी दुनिया को छोडा तो क्या
आप इतने क्यों आखिर परेशान हैं, वो संभलते संभलते संभल जायेगा ।

1 तबसिरात:

Blogger debashish said...

वाह भई वाह! मेरे ज़ेहन में तो जैसे जगजीत की आवाज़ में समूची गज़ल कौंध गई। यदि शायर का परिचय थोड़ी तफ़सील से शामिल कर पाएं तो और अच्छा हो..

1:18 AM  

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