बज़्म

उर्दु ज़बान की चाशनी में घुली महफ़िल-ए-सुख़न

Thursday, June 03, 2004

इख़्लास

दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला
वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़माने वाला ।

क्या कहें कितने मरासिम थे हमारे इस से
वो जो इक शख्स है मुंह फेर के जाने वाला ।

मुंतज़िर किसका हूं टूटी हुई दहलीज़ पे मैं
कौन आयेगा यहां कौन है आने वाला ।

मैंने देखा है बहारों में चमन को जलते
है कोई ख़्वाब की ताबीर बनाने वाला ।

तुम तक़्ल्लुफ को भी इख़्लास समझते हो 'फराज़'
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला ।

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