बज़्म

उर्दु ज़बान की चाशनी में घुली महफ़िल-ए-सुख़न

Thursday, June 03, 2004

इत्तेफाक

बरसों के बाद देखा इक शख़्स दिलरुबा सा
अब ज़हन में नहीं है पर नाम था भला सा ।

अबरू खिंचे खिंचे से आखें झुकी झुकी सी
बातें रुकी रुकी सी लहज़ा थका थका सा ।

अलफाज़ थे के जुगनु आवाज़ के सफ़र में
बन जाये जंगलों में जिस तरह रास्ता सा ।

ख़्वाबों में ख़्वाब उसके यादों में याद उसकी
नींदों में घुल गया हो जैसे के रतजगा सा ।

पहले भी लोग आये कितने ही ज़िंदगी में
वो हर तरह से लेकिन औरों से था जुदा सा ।

कुछ ये कह मुद्द्तों से हम भी नहीं थे रोये
कुछ ज़हर में बुझा था अहबाब का दिलासा ।

फिर यूं हुआ के सावन आंखो में आ बसे थे
फिर यूं हुआ के जैसे दिल भी था आबलाह सा ।

अब सच कहें तो यारों हम को खबर नहीं थी
बन जायेगा क़यामत इक वाक़या ज़रा सा ।

तेवर थे बेरूखी के अंदाज़ दोस्ती के
वो अजनबी था लेकिन लगता था आशना सा ।

हम ने भी उसको देखा कल शाम इत्तेफाक़न
अपना भी हाल है अब लोगों 'फराज़' का सा |

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