बज़्म

उर्दु ज़बान की चाशनी में घुली महफ़िल-ए-सुख़न

Friday, June 04, 2004

दरिया

मेरी तस्वीर में, रंग और किसी का तो नहीं
घेर लें मुझको सब आ के, मैं तमाशा तो नहीं ।

ज़िंदगी तुझसे हर इक साँस पे समझौता करूं,
शौक़ जीने का है मुझको, मगर इतना तो नहीं ।

रूह को दर्द मिला दर्द को आँखें ना मिली,
तुझको महसूस किया है, तुझे देखा तो नहीं ।

सोचते सोचते दिल डूबने लगता है मेरा,
ज़हन की तह में 'मुज़फ्फर', कोई दरिया तो नहीं ।

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