बज़्म

उर्दु ज़बान की चाशनी में घुली महफ़िल-ए-सुख़न

Friday, June 04, 2004

ज़ख्म

किसी की आँख जो पुरनम नहीं है
न समझो ये के उसको ग़म नहीं है ।

सवाद-ए-दर्द में तन्हा खडा हूँ
पलट जाऊं मगर मौसम नहीं है ।

समझ में कुछ नहीं आता किसी की
अग़र्चे गुफ़्तगु मुबहम नहीं है ।

सुलगता नहीं तारीक़ जंगल
तलब की लौ अगर मद्धम नहीं है ।

ये बस्ती है सितम परवरदिगाँ की
यहाँ कोई किसी से कम नहीं है ।

किनारा दूसरा दरिया का जैसे
वो साथी है मगर मेहरम नहीं है ।

दिलों की रौशनी बुझने ना देना
वजूद-ए-तीरगी मोहकम नहीं है ।

मैं तुम को चाह कर पछता रहा हूं
कोई इस ज़ख्म का मरहम नहीं है ।

जो कोई सुन सके 'अमजद' तो दुनिया
बजूज़ इक बज़गश्त-ए-ग़म नहीं है ।

0 तबसिरात:

Post a Comment

<< Home