बज़्म

उर्दु ज़बान की चाशनी में घुली महफ़िल-ए-सुख़न

Sunday, June 06, 2004

हसरत

अब जो इक हसरत-ए-जवानी है
उम्र-ए-रफ्ता की ये निशानी है ।

ख़ाक़ थी मौजज़न जहाँ में, और
हम को धोका ये था के पानी है ।

गिरिया हर वक़्त का नहीं बेहेच
दिल में कोई ग़म-ए-निहानी है ।

हम क़फस ज़ाद कैदी हैं वरना
ता चमन पाराफशानी है ।

याँ हुऎ 'मीर' हम बराबर-ए-ख़ाक
वाँ वही नाज़-ओ-सरगिरानी है ।

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