बज़्म

उर्दु ज़बान की चाशनी में घुली महफ़िल-ए-सुख़न

Sunday, June 20, 2004

ख़ाक

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ के सर होने तक ।

दामे हर मौज में है हल्क़ा-ए-सदकामे निहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होने तक ।

आशिकी सब्र तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ूने जिगर होने तक ।

हमने माना कि तग़ाफुल न करोगे, लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम, तुमको ख़बर होने तक ।

परतवे ख़ुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होने तक ।

इक नज़र बेश नहीं फ़ुर्सत-ए-हस्ती ग़ाफिल
गर्मि-ए-बज़्म है इक रक़्स-ए-शरर होने तक ।

ग़मे हस्ती का 'असद' किससे हो जुज़ मर्ग इलाज
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक ।

सदकामे निहंग - सौ जबड़ों वाला मगरमच्छ
गुहर - मोती
तग़ाफुल - देरी
परतवे ख़ुर - सूरज की किरण
बेश - नज़र का आधिक्य
ग़ाफिल - उपेक्षित, बेख़ब्रर
गर्मि-ए-बज़्म - सभा की रौनक
रक़्स-ए-शरर - चिंगारी का नाच
जुज़ - सिवाय
मर्ग - मौत

2 तबसिरात:

Blogger आलोक said...

रक़्से शरर। क्या बात है।

1:11 PM  
Blogger v9y said...

shaayad Gaalib kii sabase mashahuur Gazal. kam se kam sabase zyaadaa fanakaaro.n dwaaraa gaaii ga_ii to hogii hii.

kuchh 'turat' sa.nshodhan:

2.
daame > daam. matalab hai jaal/trap
niha.ng = magarmachchh
sadakaam-e-niha.ng = sau jaba.Do.n waalaa magaramachchh

5.
partav-e-khuur > partav-e-khur (chhoTaa u) = suuraj kii kiraN

agalii kaa intazaar hai..

2:29 PM  

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