बज़्म

उर्दु ज़बान की चाशनी में घुली महफ़िल-ए-सुख़न

Monday, June 28, 2004

अपनी मर्ज़ी से कहाँ

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं |

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में, किसी दूसरे घर के हम हैं |

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से
किसको मालूम, कहाँ के हैं, किधर के हम हैं |

जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं
कभी धरती के, कभी चाँद नगर के हम हैं |

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं |

गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं |

- निदा फाज़ली

1 तबसिरात:

Blogger आलोक said...

जनाब, क्या आपके पास सरफ़रोशी की तमन्ना (रामप्रसाद बिस्मिल) के नग्म हैं?

1:10 AM  

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