बज़्म

उर्दु ज़बान की चाशनी में घुली महफ़िल-ए-सुख़न

Saturday, July 10, 2004

मुँह की बात

'हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखना '

हाज़रीन,
जनाब निदा फाज़ली साहब की शायरी भी कुछ ऎसे ही दस-बीस नहीं बल्कि सैंकड़ों रंगों और जिन्दगी के अनगिनत पहलुओं से पुर-नूर एक तसवीर की मानिंद है । एक ऐसी तसवीर जिसमें मुसव्विर के क़िरदारों के साथ-साथ अपनी और अपने ईर्द-गिर्द के लोगों की परछाईयाँ भी दिखाई पडती हैं । शाया होती है तलाश एक शख़्स की खुद अपनी, और सरहदों में बंट गये कुछ अपनों की । इनकी शायरी में ज़हानत है, गहराई है और वो भी बगैर ज़बानी पेचीदगी के । तो इन्हीं बंजारा मिज़ाज निदा फाज़ली साहब की एक और ग़ज़ल पेशे-ख़िदमत है ।

मुँह की बात सुने हर कोई
दिल के दर्द को जाने कौन
आवाज़ों के बाज़ारों में
ख़ामोशी पहचाने कौन ।

सदियों-सदियों वही तमाशा
रस्ता-रस्ता लम्बी खोज
लेकिन जब हम मिल जाते हैं
खो जाता है जाने कौन ।

जाने क्या-क्या बोल रहा था
सरहद, प्यार, किताबें, ख़ून
कल मेरी नींदों में छुपकर
जाग रहा था जाने कौन ।

मैं उसकी परछाई हूँ या
वो मेरा आईना है
मेरे ही घर में रहता है
मेरे जैसा जाने कौन ।

किरन-किरन अलसाता सूरज
पलक-पलक खुलती नींदें
धीमे-धीमे बिखर रहा है
ज़र्रा-ज़र्रा जाने कौन ।

ख़ुदा हाफिज़,
मुनीश

1 तबसिरात:

Blogger नकुल गौतम said...

waaah
Amazing poetry

I heard this ghazal years ago.
Reached here today while surfing.

nice to read it.

Feeling alive

7:59 AM  

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