बज़्म

उर्दु ज़बान की चाशनी में घुली महफ़िल-ए-सुख़न

Saturday, October 02, 2004

सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल

सब कहाँ, कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो ग‌ईं,
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी, कि पिन्हाँ हो ग‌ईं

याद थीं हमको भी रंगारंग बज़्म आरा‌इयाँ
लेकिन अब नक़्श-ओ-निगारे-ताक़े-निसियाँ हो ग‌ईं

थी बनातुन्न अर्शे गर्दूं दिन को पर्दे में निहाँ
शब को उनके जी में क्या आ‌ई कि उरियाँ हो ग‌ईं

क़ैद में याक़ूब ने ली गो न यूसुफ़ की ख़बर
लेकिन आँखें रौज़ने दीवारे ज़िन्दाँ हो ग‌ईं

सब रक़ीबों से हों नाख़ुश, पर ज़नाने मिस्त्र से
है जुलैख़ा ख़ुश कि मह‌वे माहे क़न‍आँ हो ग‌ईं

जू-ए-ख़ूँ आंखों से बहने दो, कि है शामे फ़िराक़
मैं ये समझूँगा कि शम‍एँ भी फ़िरोज़ाँ हो ग‌ईं

इन परीज़ादों से लेंगे ख़ुल्द में हम इंतिक़ाम
क़ुदरते हक़ से यही हूरें, अगर वाँ हो ग‌ईं

नींद उसकी है, दिमाग़ उसका है, रातें उसकी हैं
तेरी ज़ुल्फ़ें जिसके बाज़ू पर परीशाँ हो ग‌ईं

मैं चमन में क्या गया, गोया दबिस्ताँ खुल गया
बुलबुलें सुनकर मेरे नाले, ग़ज़लख़्वाँ हो ग‌ईं

वो निगाहें क्यूँ हु‌ई जाती हैं यारब दिल के पार
जो मेरी क़ोताहि-ए-क़िस्मत से मिज़्गाँ हो ग‌ईं

बस कि रोका मैंने और सीने में उभरे पै-ब-पै
मेरी आहें, बख़िया-ए-चाके गरेबाँ हो ग‌ईं

वाँ गया भी मैं तो उनकी गालियों का क्या जवाब
याद थी जितनी दु‌आ‌एँ, सर्फ़े दरबाँ हो ग‌ईं

जाँफ़िज़ा है बादा, जिसके हाथ में जाम आ गया
सब लक़ीरें हाथ की गोया रगे जाँ हो ग‌ईं

हम मुव्वहिद हैं, हमारा केश है तर्क़े रूसूम
मिल्लतें जब मिट ग‌ईं, अज्ज़ा-ए-ईमाँ हो ग‌ईं

रंज से ख़ूगर हु‌आ इन्साँ तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो ग‌ईं

यूँ ही गर रोता रहा 'ग़ालिब', तो ए अह‌ले जहाँ
देखना इन बस्तियों को तुम कि वीराँ हो ग‌ईं

लाला-ओ-गुल - सुर्ख फूल
बज़्म आरा‌इयाँ - सभा शोभा
उरियाँ - नग्न, दबिस्ताँ - पाठशाला
सर्फ़े दरबाँ - चौखट पर न्योछावर
मुव्वहिद - आस्तिक
केश - धर्म, तर्क़े रुसूम - प्रथा का त्याग

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