बज़्म

उर्दु ज़बान की चाशनी में घुली महफ़िल-ए-सुख़न

Saturday, August 28, 2004

ये तसल्ली है

ये तसल्ली है कि हैं नाशाद सब
मैं अकेला ही नहीं बरबाद सब

सबकी ख़ातिर हैं यहाँ सब अजनबी
और कहने को हैं घर आबाद सब

भूलके सब रंजिशें सब एक हैं
मैं बताऊँ, सबको होगा याद सब

सबको दावा-ए-वफ़ा, सबको यक़ीं
इस अदाकारी में हैं उस्ताद सब

शहर के हाकिम का ये फ़रमान है
क़ैद में कहलायेंगे आज़ाद सब

चार लफ़्जों में कहो जो भी कहो
उसको कब फ़ुरसत सुने फ़रियाद सब

तल्ख़ियाँ कैसे न हों अशआर में
हम पे जो गुज़री हमें है याद सब

- जावेद अख़्तर


1 तबसिरात:

Blogger Jitendra Chaudhary said...

वाह वाह, वाह वा..
मुकर्रर

जावेद साहब,
आपकी शेरो शायरी मे वो जादू है, हो जाये कुर्बान सब
मै अकेला नही आशिक आपका, यहाँ आपके है कद्रदां सब.....

4:08 AM  

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