बज़्म

उर्दु ज़बान की चाशनी में घुली महफ़िल-ए-सुख़न

Saturday, July 31, 2004

हसरत ही सही

इश्क़ मुझको नहीं वहशत ही सही
मेरी वहशत, तेरी शोहरत ही सही

क़त्अ कीजे न तअल्लुक हमसे
कुछ नहीं है, तो अदावत ही सही

मेरे होने में है क्या रूसवाई
ऎ वो मजलिस नहीं, ख़लवत ही सही

हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने
ग़ैर को तुझसे मोहब्बत ही सही

अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो
आगही गर नहीं, ग़फ़लत ही सही

उम्र हरचन्द के है बर्क़े-ख़िराम
दिल के ख़ूँ करने की फ़ुर्सत ही सही

हम कोई तर्क़े वफ़ा करते हैं
न सही इश्क़, मुसीबत ही सही

कुछ तो दे ऎ फ़लके नाइन्साफ़
आह-ओ-फ़रियाद की रूख़्सत ही सही

हम भी तसलीम की ख़ू डालेंगे
बेनियाज़ी तेरी आदत ही सही

यार से छेड़ चली जाए 'असद'
गर नहीं वस्ल, तो हसरत ही सही


क़त्अ - तोड़ देना
आगही - चेतना
ग़फ़लत - अवचेतना
बर्क़े-ख़िराम - धीमी धीमी बिजली
ख़ू - आदत
बेनियाज़ी - उपेक्षा करना


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