बज़्म

उर्दु ज़बान की चाशनी में घुली महफ़िल-ए-सुख़न

Monday, July 19, 2004

हम तो आशिक़ हैं

ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
हम रहें यूँ तश्नालब पैग़ाम के

ख़स्तगी का तुमसे क्या शिकवा कि ये
हथकंडे हैं चर्ख़े नीली फ़ाम के

ख़त लिखेंगे, गरचे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के

रात पी जमज़म पे मय, और सुब्हदम
धोए धब्बे जामा-ए-एहराम के

दिल को आँखों ने फँसाया, क्या मगर
ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के

शाह की है ग़ुस्ले-सेहत की ख़बर
देखिए दिन कब फिरें हम्माम के

इश्क ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के

तश्नालब - प्यासे होंठ
नीली फ़ाम - नीलगगन
जामा-ए-एहराम - पवित्र वस्त्र



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