बज़्म

उर्दु ज़बान की चाशनी में घुली महफ़िल-ए-सुख़न

Wednesday, February 16, 2005

कभी यूँ भी आ

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में, के मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सहर न हो

वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है, मुझे ये सिफत भी अता करे
तुझे भूलने की दु‌आ करूँ, तो दु‌आ में मेरी असर न हो

कभी दिन की धूप में झूम के, कभी शब के फूल को चूम के
यूँ ही साथ साथ चलें सदा, कभी खत्म अपना सफर न हो

मेरे पास मेरे हबीब आ, ज़रा और दिल के क़रीब आ
तुझे धड़कनों में बसा लूँ मैं, के बिछड़ने का कभी डर न हो

- बशीर बद्र