बज़्म

उर्दु ज़बान की चाशनी में घुली महफ़िल-ए-सुख़न

Saturday, July 31, 2004

हसरत ही सही

इश्क़ मुझको नहीं वहशत ही सही
मेरी वहशत, तेरी शोहरत ही सही

क़त्अ कीजे न तअल्लुक हमसे
कुछ नहीं है, तो अदावत ही सही

मेरे होने में है क्या रूसवाई
ऎ वो मजलिस नहीं, ख़लवत ही सही

हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने
ग़ैर को तुझसे मोहब्बत ही सही

अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो
आगही गर नहीं, ग़फ़लत ही सही

उम्र हरचन्द के है बर्क़े-ख़िराम
दिल के ख़ूँ करने की फ़ुर्सत ही सही

हम कोई तर्क़े वफ़ा करते हैं
न सही इश्क़, मुसीबत ही सही

कुछ तो दे ऎ फ़लके नाइन्साफ़
आह-ओ-फ़रियाद की रूख़्सत ही सही

हम भी तसलीम की ख़ू डालेंगे
बेनियाज़ी तेरी आदत ही सही

यार से छेड़ चली जाए 'असद'
गर नहीं वस्ल, तो हसरत ही सही


क़त्अ - तोड़ देना
आगही - चेतना
ग़फ़लत - अवचेतना
बर्क़े-ख़िराम - धीमी धीमी बिजली
ख़ू - आदत
बेनियाज़ी - उपेक्षा करना


Monday, July 19, 2004

हम तो आशिक़ हैं

ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
हम रहें यूँ तश्नालब पैग़ाम के

ख़स्तगी का तुमसे क्या शिकवा कि ये
हथकंडे हैं चर्ख़े नीली फ़ाम के

ख़त लिखेंगे, गरचे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के

रात पी जमज़म पे मय, और सुब्हदम
धोए धब्बे जामा-ए-एहराम के

दिल को आँखों ने फँसाया, क्या मगर
ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के

शाह की है ग़ुस्ले-सेहत की ख़बर
देखिए दिन कब फिरें हम्माम के

इश्क ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के

तश्नालब - प्यासे होंठ
नीली फ़ाम - नीलगगन
जामा-ए-एहराम - पवित्र वस्त्र



नयी-नयी आँखें

नयी-नयी आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है
कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन, अब घर अच्छा लगता है ।

मिलने-जुलनेवालों में तो सारे अपने जैसे हैं
जिससे अब तक मिले नहीं वो अक्सर अच्छा लगता है ।

मेरे आँगन में आये या तेरे सर पर चोट लगे
सन्नाटों में बोलनेवाला पत्थर अच्छा लगता है ।

चाहत हो या पूजा सबके अपने-अपने साँचे हैं
जो मूरत में ढल जाये वो पैकर अच्छा लगता है ।

हमने भी सोकर देखा है नये-पुराने शहरों में
जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है ।

- निदा फाज़ली


Saturday, July 10, 2004

मुँह की बात

'हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखना '

हाज़रीन,
जनाब निदा फाज़ली साहब की शायरी भी कुछ ऎसे ही दस-बीस नहीं बल्कि सैंकड़ों रंगों और जिन्दगी के अनगिनत पहलुओं से पुर-नूर एक तसवीर की मानिंद है । एक ऐसी तसवीर जिसमें मुसव्विर के क़िरदारों के साथ-साथ अपनी और अपने ईर्द-गिर्द के लोगों की परछाईयाँ भी दिखाई पडती हैं । शाया होती है तलाश एक शख़्स की खुद अपनी, और सरहदों में बंट गये कुछ अपनों की । इनकी शायरी में ज़हानत है, गहराई है और वो भी बगैर ज़बानी पेचीदगी के । तो इन्हीं बंजारा मिज़ाज निदा फाज़ली साहब की एक और ग़ज़ल पेशे-ख़िदमत है ।

मुँह की बात सुने हर कोई
दिल के दर्द को जाने कौन
आवाज़ों के बाज़ारों में
ख़ामोशी पहचाने कौन ।

सदियों-सदियों वही तमाशा
रस्ता-रस्ता लम्बी खोज
लेकिन जब हम मिल जाते हैं
खो जाता है जाने कौन ।

जाने क्या-क्या बोल रहा था
सरहद, प्यार, किताबें, ख़ून
कल मेरी नींदों में छुपकर
जाग रहा था जाने कौन ।

मैं उसकी परछाई हूँ या
वो मेरा आईना है
मेरे ही घर में रहता है
मेरे जैसा जाने कौन ।

किरन-किरन अलसाता सूरज
पलक-पलक खुलती नींदें
धीमे-धीमे बिखर रहा है
ज़र्रा-ज़र्रा जाने कौन ।

ख़ुदा हाफिज़,
मुनीश