बज़्म

उर्दु ज़बान की चाशनी में घुली महफ़िल-ए-सुख़न

Monday, June 28, 2004

अपनी मर्ज़ी से कहाँ

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं |

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में, किसी दूसरे घर के हम हैं |

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से
किसको मालूम, कहाँ के हैं, किधर के हम हैं |

जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं
कभी धरती के, कभी चाँद नगर के हम हैं |

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं |

गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं |

- निदा फाज़ली

Sunday, June 20, 2004

ख़ाक

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ के सर होने तक ।

दामे हर मौज में है हल्क़ा-ए-सदकामे निहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होने तक ।

आशिकी सब्र तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ूने जिगर होने तक ।

हमने माना कि तग़ाफुल न करोगे, लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम, तुमको ख़बर होने तक ।

परतवे ख़ुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होने तक ।

इक नज़र बेश नहीं फ़ुर्सत-ए-हस्ती ग़ाफिल
गर्मि-ए-बज़्म है इक रक़्स-ए-शरर होने तक ।

ग़मे हस्ती का 'असद' किससे हो जुज़ मर्ग इलाज
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक ।

सदकामे निहंग - सौ जबड़ों वाला मगरमच्छ
गुहर - मोती
तग़ाफुल - देरी
परतवे ख़ुर - सूरज की किरण
बेश - नज़र का आधिक्य
ग़ाफिल - उपेक्षित, बेख़ब्रर
गर्मि-ए-बज़्म - सभा की रौनक
रक़्स-ए-शरर - चिंगारी का नाच
जुज़ - सिवाय
मर्ग - मौत

Sunday, June 06, 2004

हसरत

अब जो इक हसरत-ए-जवानी है
उम्र-ए-रफ्ता की ये निशानी है ।

ख़ाक़ थी मौजज़न जहाँ में, और
हम को धोका ये था के पानी है ।

गिरिया हर वक़्त का नहीं बेहेच
दिल में कोई ग़म-ए-निहानी है ।

हम क़फस ज़ाद कैदी हैं वरना
ता चमन पाराफशानी है ।

याँ हुऎ 'मीर' हम बराबर-ए-ख़ाक
वाँ वही नाज़-ओ-सरगिरानी है ।

Friday, June 04, 2004

ज़ख्म

किसी की आँख जो पुरनम नहीं है
न समझो ये के उसको ग़म नहीं है ।

सवाद-ए-दर्द में तन्हा खडा हूँ
पलट जाऊं मगर मौसम नहीं है ।

समझ में कुछ नहीं आता किसी की
अग़र्चे गुफ़्तगु मुबहम नहीं है ।

सुलगता नहीं तारीक़ जंगल
तलब की लौ अगर मद्धम नहीं है ।

ये बस्ती है सितम परवरदिगाँ की
यहाँ कोई किसी से कम नहीं है ।

किनारा दूसरा दरिया का जैसे
वो साथी है मगर मेहरम नहीं है ।

दिलों की रौशनी बुझने ना देना
वजूद-ए-तीरगी मोहकम नहीं है ।

मैं तुम को चाह कर पछता रहा हूं
कोई इस ज़ख्म का मरहम नहीं है ।

जो कोई सुन सके 'अमजद' तो दुनिया
बजूज़ इक बज़गश्त-ए-ग़म नहीं है ।

दरिया

मेरी तस्वीर में, रंग और किसी का तो नहीं
घेर लें मुझको सब आ के, मैं तमाशा तो नहीं ।

ज़िंदगी तुझसे हर इक साँस पे समझौता करूं,
शौक़ जीने का है मुझको, मगर इतना तो नहीं ।

रूह को दर्द मिला दर्द को आँखें ना मिली,
तुझको महसूस किया है, तुझे देखा तो नहीं ।

सोचते सोचते दिल डूबने लगता है मेरा,
ज़हन की तह में 'मुज़फ्फर', कोई दरिया तो नहीं ।

Thursday, June 03, 2004

इत्तेफाक

बरसों के बाद देखा इक शख़्स दिलरुबा सा
अब ज़हन में नहीं है पर नाम था भला सा ।

अबरू खिंचे खिंचे से आखें झुकी झुकी सी
बातें रुकी रुकी सी लहज़ा थका थका सा ।

अलफाज़ थे के जुगनु आवाज़ के सफ़र में
बन जाये जंगलों में जिस तरह रास्ता सा ।

ख़्वाबों में ख़्वाब उसके यादों में याद उसकी
नींदों में घुल गया हो जैसे के रतजगा सा ।

पहले भी लोग आये कितने ही ज़िंदगी में
वो हर तरह से लेकिन औरों से था जुदा सा ।

कुछ ये कह मुद्द्तों से हम भी नहीं थे रोये
कुछ ज़हर में बुझा था अहबाब का दिलासा ।

फिर यूं हुआ के सावन आंखो में आ बसे थे
फिर यूं हुआ के जैसे दिल भी था आबलाह सा ।

अब सच कहें तो यारों हम को खबर नहीं थी
बन जायेगा क़यामत इक वाक़या ज़रा सा ।

तेवर थे बेरूखी के अंदाज़ दोस्ती के
वो अजनबी था लेकिन लगता था आशना सा ।

हम ने भी उसको देखा कल शाम इत्तेफाक़न
अपना भी हाल है अब लोगों 'फराज़' का सा |

इख़्लास

दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला
वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़माने वाला ।

क्या कहें कितने मरासिम थे हमारे इस से
वो जो इक शख्स है मुंह फेर के जाने वाला ।

मुंतज़िर किसका हूं टूटी हुई दहलीज़ पे मैं
कौन आयेगा यहां कौन है आने वाला ।

मैंने देखा है बहारों में चमन को जलते
है कोई ख़्वाब की ताबीर बनाने वाला ।

तुम तक़्ल्लुफ को भी इख़्लास समझते हो 'फराज़'
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला ।

इब्तदा

फिर से मौसम बहारों का आने को है, फिर से रंग-ए-ज़माना बदल जायेगा
अब के बज़्म-ए-चरागां सजायेंगे हम, ये भी अरमान दिल का निकल जायेगा ।

फीकी फीकी सी कयूँ शाम-ए-महखाना है, लुत्फ़-ए-साक़ी भी कम खाली पैमाना है
अपनी नज़रों से ही कुछ पिला दीजिये, रंग महफिल का खुद ही बदल जायेगा ।

आप कर दें जो मुझ पर निगाह-ए-करम, मेरी उलफ़त का रह जायेगा कुछ भरम
यूं फसाना तो मेरा रहेगा वही , सिर्फ उन्मान उनका बदल जायेगा ।

मेरे मिटने का उनको ज़रा ग़म नहीं, ज़ुल्फ भी उनकी ए दोस्त बरहम नहीं
अपने होने ना होने से होता है क्या, काम दुनिया का यूँ भी तो चल जायेगा |

आपने दिल जो 'ज़ाहिद' का तोडा तो क्या, आपने उसकी दुनिया को छोडा तो क्या
आप इतने क्यों आखिर परेशान हैं, वो संभलते संभलते संभल जायेगा ।