बज़्म

उर्दु ज़बान की चाशनी में घुली महफ़िल-ए-सुख़न

Saturday, April 16, 2005

चाँद और सितारे

डरते-डरते दमे-सहर से,
तारे कहने लगे क़मर से ।
नज़्ज़ारे रहे वही फ़लक पर,
हम थक भी गये चमक-चमक कर ।
काम अपना है सुबह-ओ-शाम चलना,
चलन, चलना, मुदाम चलना ।
बेताब है इस जहां की हर शै,
कहते हैं जिसे सकूं, नहीं है ।

होगा कभी ख़त्म यह सफ़र क्या ?
मंज़िल कभी आयेगी नज़र क्या ?

कहने लगा चाँद, हमनशीनो !
ऐ मज़रअ-ए-शब के खोशाचीनो !
जुंबिश से है ज़िन्दगी जहां की,
यह रस्म क़दीम है यहाँ की ।
इस रह में मुक़ाम बेमहल है,
पोशीदा क़रार में अज़ल है ।
चलने वाले निकल गये हैं,
जो ठहरे ज़रा, कुचल गये हैं ॥

- इक़बाल

दमे-सहर - प्रभात
क़मर - चाँद
मुदाम - निरन्तर
मज़रअ-ए-शब - रात की खेती
खोशाचीनो - बालियां चुनने वालों
क़दीम - प्राचीन
बेमहल - असंगत
पोशीदा - निहित
क़रार - ठहराव
अज़ल - मृत्यु

Wednesday, February 16, 2005

कभी यूँ भी आ

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में, के मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सहर न हो

वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है, मुझे ये सिफत भी अता करे
तुझे भूलने की दु‌आ करूँ, तो दु‌आ में मेरी असर न हो

कभी दिन की धूप में झूम के, कभी शब के फूल को चूम के
यूँ ही साथ साथ चलें सदा, कभी खत्म अपना सफर न हो

मेरे पास मेरे हबीब आ, ज़रा और दिल के क़रीब आ
तुझे धड़कनों में बसा लूँ मैं, के बिछड़ने का कभी डर न हो

- बशीर बद्र

Wednesday, October 27, 2004

शाम के बाद

जब भी आती है तेरी याद कभी शाम के बाद
और बढ़ जाती है अफसुर्दा-दिली शाम के बाद

अब इरादों पे भरोसा है ना तौबा पे यकीं
मुझ को ले जाये कहाँ तश्ना-लबी शाम के बाद

यूँ तो हर लम्हा तेरी याद का बोझल गुज़रा
दिल को महसूस हु‌ई तेरी कमी शाम के बाद

यूँ तो कुछ शाम से पहले भी उदासी थी 'अदीब'
अब तो कुछ और बढ़ी दिल की लगी शाम के बाद

Saturday, October 02, 2004

सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल

सब कहाँ, कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो ग‌ईं,
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी, कि पिन्हाँ हो ग‌ईं

याद थीं हमको भी रंगारंग बज़्म आरा‌इयाँ
लेकिन अब नक़्श-ओ-निगारे-ताक़े-निसियाँ हो ग‌ईं

थी बनातुन्न अर्शे गर्दूं दिन को पर्दे में निहाँ
शब को उनके जी में क्या आ‌ई कि उरियाँ हो ग‌ईं

क़ैद में याक़ूब ने ली गो न यूसुफ़ की ख़बर
लेकिन आँखें रौज़ने दीवारे ज़िन्दाँ हो ग‌ईं

सब रक़ीबों से हों नाख़ुश, पर ज़नाने मिस्त्र से
है जुलैख़ा ख़ुश कि मह‌वे माहे क़न‍आँ हो ग‌ईं

जू-ए-ख़ूँ आंखों से बहने दो, कि है शामे फ़िराक़
मैं ये समझूँगा कि शम‍एँ भी फ़िरोज़ाँ हो ग‌ईं

इन परीज़ादों से लेंगे ख़ुल्द में हम इंतिक़ाम
क़ुदरते हक़ से यही हूरें, अगर वाँ हो ग‌ईं

नींद उसकी है, दिमाग़ उसका है, रातें उसकी हैं
तेरी ज़ुल्फ़ें जिसके बाज़ू पर परीशाँ हो ग‌ईं

मैं चमन में क्या गया, गोया दबिस्ताँ खुल गया
बुलबुलें सुनकर मेरे नाले, ग़ज़लख़्वाँ हो ग‌ईं

वो निगाहें क्यूँ हु‌ई जाती हैं यारब दिल के पार
जो मेरी क़ोताहि-ए-क़िस्मत से मिज़्गाँ हो ग‌ईं

बस कि रोका मैंने और सीने में उभरे पै-ब-पै
मेरी आहें, बख़िया-ए-चाके गरेबाँ हो ग‌ईं

वाँ गया भी मैं तो उनकी गालियों का क्या जवाब
याद थी जितनी दु‌आ‌एँ, सर्फ़े दरबाँ हो ग‌ईं

जाँफ़िज़ा है बादा, जिसके हाथ में जाम आ गया
सब लक़ीरें हाथ की गोया रगे जाँ हो ग‌ईं

हम मुव्वहिद हैं, हमारा केश है तर्क़े रूसूम
मिल्लतें जब मिट ग‌ईं, अज्ज़ा-ए-ईमाँ हो ग‌ईं

रंज से ख़ूगर हु‌आ इन्साँ तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो ग‌ईं

यूँ ही गर रोता रहा 'ग़ालिब', तो ए अह‌ले जहाँ
देखना इन बस्तियों को तुम कि वीराँ हो ग‌ईं

लाला-ओ-गुल - सुर्ख फूल
बज़्म आरा‌इयाँ - सभा शोभा
उरियाँ - नग्न, दबिस्ताँ - पाठशाला
सर्फ़े दरबाँ - चौखट पर न्योछावर
मुव्वहिद - आस्तिक
केश - धर्म, तर्क़े रुसूम - प्रथा का त्याग

गरज-बरस

गरज-बरस प्यासी धरती पर
फिर पानी दे मौला
चिड़ियों को दाने, बच्चों को
गुड़धानी दे मौला

दो और दो का जोड़ हमेशा
चार कहाँ होता है
सोच-समझवालों को थोड़ी
नादानी दे मौला

फिर रौशन कर ज़हर का प्याला
चमका नयी सलीबें
झूठों की दुनिया में सच को
ताबानी दे मौला

फिर मूरत से बाहर आकर
चारों ओर बिखर जा
फिर मन्दिर को को‌ई मीरा
दीवानी दे मौला

तेरे होते को‌ई किसी की
जान का दुश्मन क्यों हो
जीनेवालों को मरने की
आसानी दे मौला

- निदा फाज़ली

Saturday, August 28, 2004

ये तसल्ली है

ये तसल्ली है कि हैं नाशाद सब
मैं अकेला ही नहीं बरबाद सब

सबकी ख़ातिर हैं यहाँ सब अजनबी
और कहने को हैं घर आबाद सब

भूलके सब रंजिशें सब एक हैं
मैं बताऊँ, सबको होगा याद सब

सबको दावा-ए-वफ़ा, सबको यक़ीं
इस अदाकारी में हैं उस्ताद सब

शहर के हाकिम का ये फ़रमान है
क़ैद में कहलायेंगे आज़ाद सब

चार लफ़्जों में कहो जो भी कहो
उसको कब फ़ुरसत सुने फ़रियाद सब

तल्ख़ियाँ कैसे न हों अशआर में
हम पे जो गुज़री हमें है याद सब

- जावेद अख़्तर


Saturday, August 21, 2004

ऎसा आसाँ नहीं

वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ
वो शब-ओ-रोज़-ओ-माह-ओ-साल कहाँ

फ़ुर्सते कारोबारे शौक़ किसे
ज़ौक़े नज़्ज़ारा-ए-जमाल कहाँ

दिल तो दिल वो दिमाग़ भी न रहा
शोरे सौदा-ए-ख़त्त-ओ-ख़ाल कहाँ

थी वो इक शख़्स के तसव्वुर से
अब वो रानाई-ए-ख़्याल कहाँ

ऎसा आसाँ नहीं लहू रोना
दिल में ताक़त जिगर में हाल कहाँ

हमसे छूटा क़िमारख़ान-ए-इश्क़
वाँ जो जाएं गिरह में माल कहाँ

फ़िक्रे दुनिया में सर खपाता हूँ
मैं कहाँ और ये बवाल कहाँ

मुज़महिल हो गए कुवा, 'ग़ालिब'
वो अनासिर में एतिदाल कहाँ


फ़िराक़ - विरह
विसाल - मिलन
सौदा-ए-ख़त्त-ओ-ख़ाल - रूप रेखा का सामान
तसव्वुर - सौन्दर्य-कल्पना
क़िमारख़ान-ए-इश्क़ - प्रणय का जुआघर
मुज़महिल - निश्चल, शिथिल
कुवा - शक्ति, ताकत
अनासिर - तत्व आदि
एतिदाल - सन्तुलन


Saturday, July 31, 2004

हसरत ही सही

इश्क़ मुझको नहीं वहशत ही सही
मेरी वहशत, तेरी शोहरत ही सही

क़त्अ कीजे न तअल्लुक हमसे
कुछ नहीं है, तो अदावत ही सही

मेरे होने में है क्या रूसवाई
ऎ वो मजलिस नहीं, ख़लवत ही सही

हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने
ग़ैर को तुझसे मोहब्बत ही सही

अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो
आगही गर नहीं, ग़फ़लत ही सही

उम्र हरचन्द के है बर्क़े-ख़िराम
दिल के ख़ूँ करने की फ़ुर्सत ही सही

हम कोई तर्क़े वफ़ा करते हैं
न सही इश्क़, मुसीबत ही सही

कुछ तो दे ऎ फ़लके नाइन्साफ़
आह-ओ-फ़रियाद की रूख़्सत ही सही

हम भी तसलीम की ख़ू डालेंगे
बेनियाज़ी तेरी आदत ही सही

यार से छेड़ चली जाए 'असद'
गर नहीं वस्ल, तो हसरत ही सही


क़त्अ - तोड़ देना
आगही - चेतना
ग़फ़लत - अवचेतना
बर्क़े-ख़िराम - धीमी धीमी बिजली
ख़ू - आदत
बेनियाज़ी - उपेक्षा करना